नई दिल्ली। पूरे देश में चर्चा का केंद्र बने पूजा स्थल (विशेष प्रविधान) कानून 1991 का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। शीर्ष अदालत ने पिछले सप्ताह केंद्र सरकार को मामले में समग्र जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है। केंद्र सरकार इस पर जो भी जवाब देगी उससे इस केस की दिशा और दशा तय होगी।
सरकार के जवाब पर टिकीं निगाहें
सरकार का जवाब पूजा स्थल कानून का भविष्य तय करने में अहम भूमिका निभा सकता है। सुप्रीम में पूजा स्थल कानून का मामला वैसे तो 2020 से लंबित है। वकील अश्वनी कुमार उपाध्याय, विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ, सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका में कानून की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी जबकि जमीयत उलमा ए हिंद की 2022 में दाखिल हुई याचिका में कानून को लागू कराने की मांग है। इसके बाद कई याचिकाएं और अर्जियां दाखिल हुई। पिछली सुनवाई पर कोर्ट ने केंद्र को जवाब दाखिल करने का निर्देश देते हुए कहा था कि केंद्र का जवाब आये बगैर मामले पर सुनवाई नहीं हो सकती।
केंद्र की ओर से पेश सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी जवाब दाखिल करने की बात कहते हुए समय मांगा था। अब सवाल है कि किसी मामले में जब कानून की वैधानिकता का मुद्दा लंबित हो तो सरकार के पास क्या विकल्प हो सकते हैं इस पर पूर्व विधि सचिव पीके मल्होत्रा कहते हैं कि सरकार अपना पक्ष रखेगी जिसमें कानून के प्रविधान के साथ बता सकती है कि ये किस मंशा से लाया गया था। इसके अलावा सरकार यह भी कह सकती है कि वह कानून में कुछ बदलाव करने पर विचार कर रही है और कोर्ट को बताने के बाद सरकार चाहे तो संशोधन के लिए कोई बिल ला सकती है।
सुप्रीम कोर्ट के वकील ज्ञानंत सिंह कहते हैं कि कानून संसद का बनाया होता है इसलिए सरकार हमेशा कोर्ट में उसका बचाव करती है। लेकिन सरकार कोर्ट में ये स्टेटमेंट भी दे सकती है कि वह कानून की समीक्षा करेगी और उसमें कुछ बदलाव का विचार रखती है, इसके लिए बिल लाएगी। अगर सरकार ऐसा कहती है तो फिर मामला कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से हट कर फिर विधायिका के अधिकार क्षेत्र में चला जाएगा। क्योंकि कानून लाना या उसमें संशोधन संसद के कार्यक्षेत्र में आता है। ऐसा होने पर कोर्ट सरकार के निर्णय लेने तक सुनवाई टाल सकता है।
मल्होत्रा कहते हैं कि टालने के अलावा कोर्ट सरकार का बयान दर्ज करते हुए याचिकाएं निबटा भी सकता है। पूजा स्थल कानून में पूर्व में हुई सुनवाई में जस्टिस चंद्रचूड़ की मौखिक टिप्पणी भी काफी चर्चा में है जिसमें उन्होंने कहा था कि धार्मिक स्थल का चरित्र जांचा जा सकता है। इस पर ज्ञानंत कहते हैं कि ये बात को कानून में ही है। कानून कहता है कि किसी भी धार्मिक स्थल का वही चरित्र रहेगा जो 15 अगस्त 1947 को था। लेकिन कानून किसी धार्मिक स्थल का चरित्र नहीं बताता। विवाद होने पर कोर्ट ही जांच करेगा कि धार्मिक स्थल का क्या चरित्र था।
कोर्ट न्यायिक समीक्षा के तहत ऐसा करता है। उससे यह अधिकार छीनना संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन होगा। विधि विशेषज्ञों की राय देखें तो यह तय है कि मामले में कोर्ट का रुख क्या होगा यह केंद्र के जवाब से ही तय होगा। विधायिका के छोर से देखा जाए तो जून 2022 में पूर्व सांसद हरनाथ सिंह यादव ने राज्यसभा में प्राइवेट बिल दिया था जिसमें पूजा स्थल कानून को रद करने की मांग थी लेकिन उस पर कभी चर्चा का नंबर ही नहीं आया और इसके बाद इसी वर्ष फरवरी में उन्होंने इस विषय को शून्यकाल में भी उठाया था।